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Gyan Ganga: रामचरितमानस- जानिये भाग-33 में क्या क्या हुआ Breaking News Update
श्री रामचन्द्राय नम: पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः॥ शिवजी की विचित्र बारात और विवाह की तैयारी दोहा : लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान।
होहिं सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान॥ भावार्थ:-सब देवता अपने भाँति-भाँति के वाहन और विमान सजाने लगे, कल्याणप्रद मंगल शकुन होने लगे और अप्सराएँ गाने लगीं॥ इसे भी पढ़ें: Gyan Ganga: रामचरितमानस- जानिये भाग-32 में क्या क्या हुआ चौपाई : सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा।
जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥ कुंडल कंकन पहिरे ब्याला।
तन बिभूति पट केहरि छाला॥ भावार्थ:-शिवजी के गण शिवजी का श्रृंगार करने लगे।
जटाओं का मुकुट बनाकर उस पर साँपों का मौर सजाया गया।
शिवजी ने साँपों के ही कुंडल और कंकण पहने, शरीर पर विभूति रमायी और वस्त्र की जगह बाघम्बर लपेट लिया॥ ससि ललाट सुंदर सिर गंगा।
नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥ गरल कंठ उर नर सिर माला।
असिव बेष सिवधाम कृपाला॥ भावार्थ:-शिवजी के सुंदर मस्तक पर चन्द्रमा, सिर पर गंगाजी, तीन नेत्र, साँपों का जनेऊ, गले में विष और छाती पर नरमुण्डों की माला थी।
इस प्रकार उनका वेष अशुभ होने पर भी वे कल्याण के धाम और कृपालु हैं॥ कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा।
चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा॥ देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं।
बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥ भावार्थ:-एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में डमरू सुशोभित है।
शिवजी बैल पर चढ़कर चले।
बाजे बज रहे हैं।
शिवजी को देखकर देवांगनाएँ मुस्कुरा रही हैं (और कहती हैं कि) इस वर के योग्य दुलहिन संसार में नहीं मिलेगी॥3॥ बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता।
चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता॥ सुर समाज सब भाँति अनूपा।
नहिं बरात दूलह अनुरूपा॥ भावार्थ:-विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओं के समूह अपने-अपने वाहनों (सवारियों) पर चढ़कर बारात में चले।
देवताओं का समाज सब प्रकार से अनुपम (परम सुंदर) था, पर दूल्हे के योग्य बारात न थी॥4॥ दोहा : बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज।
बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज॥ भावार्थ:-तब विष्णु भगवान ने सब दिक्पालों को बुलाकर हँसकर ऐसा कहा- सब लोग अपने-अपने दल समेत अलग-अलग होकर चलो॥92॥ चौपाई : बर अनुहारि बरात न भाई।
हँसी करैहहु पर पुर जाई॥ बिष्नु बचन सुनि सुर मुसुकाने।
निज निज सेन सहित बिलगाने॥ भावार्थ:-हे भाई! हम लोगों की यह बारात वर के योग्य नहीं है।
क्या पराए नगर में जाकर हँसी कराओगे? विष्णु भगवान की बात सुनकर देवता मुस्कुराए और वे अपनी-अपनी सेना सहित अलग हो गए॥1॥ मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं।
हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं॥ अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे।
भृंगिहि प्रेरि सकल गन टेरे॥ भावार्थ:-महादेवजी (यह देखकर) मन-ही-मन मुस्कुराते हैं कि विष्णु भगवान के व्यंग्य-वचन (दिल्लगी) नहीं छूटते! अपने प्यारे (विष्णु भगवान) के इन अति प्रिय वचनों को सुनकर शिवजी ने भी भृंगी को भेजकर अपने सब गणों को बुलवा लिया॥2॥ सिव अनुसासन सुनि सब आए।
प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए॥ नाना बाहन नाना बेषा।
बिहसे सिव समाज निज देखा॥ भावार्थ:-शिवजी की आज्ञा सुनते ही सब चले आए और उन्होंने स्वामी के चरण कमलों में सिर नवाया।
तरह-तरह की सवारियों और तरह-तरह के वेष वाले अपने समाज को देखकर शिवजी हँसे॥3॥ कोउ मुख हीन बिपुल मुख काहू।
बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू॥ बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना।
रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना॥ भावार्थ:-कोई बिना मुख का है, किसी के बहुत से मुख हैं, कोई बिना हाथ-पैर का है तो किसी के कई हाथ-पैर हैं।
किसी के बहुत आँखें हैं तो किसी के एक भी आँख नहीं है।
कोई बहुत मोटा-ताजा है, तो कोई बहुत ही दुबला-पतला है॥4॥ छंद : तन कीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें।
भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें॥ खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै।
बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै॥ भावार्थ:-कोई बहुत दुबला, कोई बहुत मोटा, कोई पवित्र और कोई अपवित्र वेष धारण किए हुए है।
भयंकर गहने पहने हाथ में कपाल लिए हैं और सब के सब शरीर में ताजा खून लपेटे हुए हैं।
गधे, कुत्ते, सूअर और सियार के से उनके मुख हैं।
गणों के अनगिनत वेषों को कौन गिने? बहुत प्रकार के प्रेत, पिशाच और योगिनियों की जमाते हैं।
उनका वर्णन करते नहीं बनता।
सोरठा : नाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब।
देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि॥ भावार्थ:-भूत-प्रेत नाचते और गाते हैं, वे सब बड़े मौजी हैं।
देखने में बहुत ही बेढंगे जान पड़ते हैं और बड़े ही विचित्र ढंग से बोलते हैं॥93॥ चौपाई : जस दूलहु तसि बनी बराता।
कौतुक बिबिध होहिं मग जाता॥ इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना।
अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना॥ भावार्थ:-जैसा दूल्हा है, अब वैसी ही बारात बन गई है।
मार्ग में चलते हुए भाँति-भाँति के कौतुक (तमाशे) होते जाते हैं।
इधर हिमाचल ने ऐसा विचित्र मण्डप बनाया कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता॥1॥ सैल सकल जहँ लगि जग माहीं।
लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं॥ बन सागर सब नदी तलावा।
हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा॥ भावार्थ:-जगत में जितने छोटे-बड़े पर्वत थे, जिनका वर्णन करके पार नहीं मिलता तथा जितने वन, समुद्र, नदियाँ और तालाब थे, हिमाचल ने सबको नेवता भेजा॥2॥ कामरूप सुंदर तन धारी।
सहित समाज सहित बर नारी॥ गए सकल तुहिमाचल गेहा।
गावहिं मंगल सहित सनेहा॥ भावार्थ:-वे सब अपनी इच्छानुसार रूप धारण करने वाले सुंदर शरीर धारण कर सुंदरी स्त्रियों और समाजों के साथ हिमाचल के घर गए।
सभी स्नेह सहित मंगल गीत गाते हैं॥3॥ प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए।
जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए॥ पुर सोभा अवलोकि सुहाई।
लागइ लघु बिरंचि निपुनाई॥ भावार्थ:-हिमाचल ने पहले ही से बहुत से घर सजवा रखे थे।
यथायोग्य उन-उन स्थानों में सब लोग उतर गए।
नगर की सुंदर शोभा देखकर ब्रह्मा की रचना चातुरी भी तुच्छ लगती थी॥4॥ छन्द : लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही।
बन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभग सब सक को कही॥ मंगल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं।
बनिता पुरुष सुंदर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं॥ भावार्थ:-नगर की शोभा देखकर ब्रह्मा की निपुणता सचमुच तुच्छ लगती है।
वन, बाग, कुएँ, तालाब, नदियाँ सभी सुंदर हैं, उनका वर्णन कौन कर सकता है? घर-घर बहुत से मंगल सूचक तोरण और ध्वजा-पताकाएँ सुशोभित हो रही हैं।
वहाँ के सुंदर और चतुर स्त्री-पुरुषों की छबि देखकर मुनियों के भी मन मोहित हो जाते हैं॥ शेष अगले प्रसंग में ------------- राम रामेति रामेति, रमे रामे मनोरमे।
सहस्रनाम तत्तुल्यं, रामनाम वरानने ॥ - आरएन तिवारी।
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Posted on 27 September 2025 | Stay updated with Newsckd.com for more news.