अशोकनगर, 29 सितंबर। जैन समाज और भारतीय आध्यात्मिक जगत के लिए 29 सितंबर, सोमवार का दिन इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से दर्ज हो गया। अशोकनगर में आयोजित अखिल भारतीय विद्वत परिषद की विराट राष्ट्रीय संगोष्ठी में देशभर से आए लगभग 80 विद्वानों ने तीर्थ चक्रवर्ती, निर्यापक श्रमण, मुनिपुंगव श्री 108 सुधासागर जी महाराज को “श्रमण शिरोमणि” की उपाधि से अलंकृत किया।
राष्ट्रीय महामंत्री डॉ. सुरेंद्र भारती ने यह प्रस्ताव रखा और प्रशस्ति का वाचन किया। इस भावपूर्ण क्षण में पंडित जयकुमार जैन, डॉ. अरुण जैन, किरण प्रकाश, अमित शास्त्री, डॉ. पुलक गोयल सहित सभी विद्वानों ने सर्वसम्मति से समर्थन किया।
लेकिन जब मंच पर जयकारों की गूंज थी, तब पूज्य श्री सुधासागर जी महाराज ने अपनी अद्भुत विनम्रता और निस्पृहता का परिचय देते हुए कहा –
“आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ने जो पद मुझे 1983 में प्रदान किया, वही मेरे लिए पर्याप्त है। उपाधि यदि देनी ही है तो ‘श्रमण’ शब्द मैं स्वीकार करता हूँ, पर ‘शिरोमणि’ आप अपने पास ही रख लें।”
यह वक्तव्य वहां उपस्थित सभी के लिए गहन प्रेरणा का क्षण बन गया। उन्होंने आगे कहा –
“मेरी सबसे बड़ी उपाधि यही है कि मैं संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के चरणों की धूल हूँ।”
पत्रकार की दृष्टि से देखें तो यह घटना केवल एक उपाधि का सम्मान भर नहीं, बल्कि त्याग, साधना और गुरु-शिष्य परंपरा की जीवंत मिसाल है। जब दुनिया पद और उपाधियों की होड़ में लगी है, तब एक सच्चे संत का ऐसा विनम्र उत्तर इस बात का उद्घोष है कि महानता उपाधियों से नहीं, बल्कि आचरण और आत्मसमर्पण से मापी जाती है।
👉 यह ऐतिहासिक क्षण न केवल जैन समाज के लिए गौरवशाली है, बल्कि सम्पूर्ण मानवता को साधना, विनम्रता और निस्पृहता का प्रेरणास्रोत प्रदान करता है।